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कोविड 19: पत्रकारिता से क्यों गायब हैं सवाल
- Author(s):
- Pramod Ranjan (see profile)
- Date:
- 2023
- Group(s):
- Artificial Intelligence, Law, Technology and Society, Medical Humanities, Scholarly Communication
- Subject(s):
- COVID-19 (Disease) in mass media, COVID-19 (Disease)--Social aspects, Electronic surveillance--Social aspects, High technology industries--Social aspects, Journalism--Objectivity, Caste, Indians--Press coverage, Journalism
- Item Type:
- Article
- Tag(s):
- Hindi patrkarita, Covid in india, Covid and dalit, covid death rate, tb death rate, malaria death rate, communicable diseases death rate
- Permanent URL:
- https://doi.org/10.17613/whsg-jv13
- Abstract:
- फ़रवरी, 2020 तक भारतीय अख़बारों में दुनिया में एक नये वायरस के फैलने की सूचना प्रमुखता से आने लगी थी। अख़बारों ने हमें बताया कि कोविड-19 सबसे अधिक जानलेवा है। लेकिन यह नहीं बताया कि हमारी हिंदी पट्टी में टी.बी, चमकी बुख़ार, न्यूमोनिया, मलेरिया आदि से मरने वालों की एक विशाल संख्या है। इन बीमारियों से सिर्फ़ हिंदी पट्टी में हर साल 5 से 7 लाख लोग मरते हैं। हमें बताया गया कि यह ख़तरनाक है, क्योंकि यह ‘वायरस’ से होता है और ला-इलाज है। लेकिन यह नहीं बताया गया कि हिंदी पट्टी के सैकड़ों ग़रीब बच्चों को मारने वाला चमकी बुख़ार (एक्यूट इंसेफ़ेलाइटिस सिंड्रोम) एवं जापानी इंसेफ़ेलाइटिस भी वायरस से होता है और वह भी आज तक ला-इलाज है। चमकी बुख़ार इतना ख़तरनाक और रहस्मयी बीमारी है कि अभी तक इसके सही-सही वजह का पता नहीं लगाया जा सका है। यह हिंदी पट्टी में हर साल 01 से 15 वर्ष के उम्र के हज़ारों बच्चों को अपना शिकार बनाता है, जिनमें से सैकड़ों की चंद दिनों में ही मौत हो जाती है। कोविड-19 की अधिकतम मृत्यु दर (CFR) ‘ज़्यादा से ज़्यादा 3 प्रतिशत’ बतायी गयी, और हमें दुनिया के सबसे क्रूर लॉकडाउन में डाल दिया गया। जबकि ऊपर बताये गये बुख़ारों में मृत्यु दर 30 प्रतिशत तक है। हमारे समाचार-माध्यमों से यह सवाल ग़ायब रहा कि इन बीमारियों को क्यों गंभीरता से नहीं लिया जाता? क्या इसलिए कि इनसे मरने वाले लगभग सभी दलित, पिछड़े और ग़रीब होते हैं, या इसलिए कि इनमें दवा कंपनियों के लिए पैसा बनाने का मौक़ा बहुत कम है? इन सवालों का ग़ायब होना अनायास नहीं है। न ही इसके कारण सिर्फ़ मनोगत हैं। बल्कि इसमें कई तत्वों की भूमिका है। कोविड-19 के इस दौर में सरकारों ने सूचनाओं पर जो प्रतिबंध लगाये हैं, वे एक तरफ़ हैं। अपेक्षाकृत बहुत बड़ा ख़तरा उस तकनीक से है, जिस पर बिग टेक और गाफ़ा (गूगल, फ़ेसबुक, ट्वीटर, अमेज़न आदि) के नाम से जाने जानी वाली कुछ कंपनियों का क़ब्ज़ा है। बिग टेक द्वारा शुरू की गयी यह सेंसरशिप अब तक सरकारों द्वारा लगायी जाने वाली सेंसरशिप से कई गुणा अधिक व्यापक और मज़बूत है। इन कंपनियों की एकाधिकारवादी नीतियों की सफलता और सरकारों की तेज़ी से बढ़ रही निरंकुशता के बीच का रिश्ता भी साफ़ तौर पर देखा जा सकता है।
- Notes:
- Newspapers told us that Covid-19 is the most deadly. But it did not tell that in our Hindi heartland, there is a huge number of people who die of TB, Chamki Bukhar, Pneumonia, Malaria, etc. Every year 5 to 7 lakh people die from these diseases only in the Hindi heartland. The disappearance of questions related to covid and lockdown is not accidental. Nor are the reasons merely occult. Rather, many elements have a role in it.
- Metadata:
- xml
- Published as:
- Journal article Show details
- Publisher:
- जनवादी लेखक संघ (जलेस), भारत
- Pub. Date:
- June, 2020
- Journal:
- नया पथ
- Volume:
- 34
- Issue:
- 2
- Page Range:
- 96 - 102
- Status:
- Published
- Last Updated:
- 2 months ago
- License:
- Attribution-NonCommercial
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Item Name: कोविड-पत्रकारिता-से-क्यों-गायब-हैं-सवाल-प्रमोद-रंजन-नया-पथ-अप्रैल-जून-2020.pdf
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