• प्रोफेसर, क्या आप जानते हो कि नालंदा क्यों जलता रहा?

    Author(s):
    Pramod Ranjan (see profile)
    Date:
    2019
    Group(s):
    Communication Studies, Cultural Studies, Political Philosophy & Theory, Public Humanities, Race/Ethnicity in Classical Antiquity
    Subject(s):
    Universities and colleges--Faculty, Intellectual freedom, Freedom of speech--Social aspects, Freedom of speech--Study and teaching, Social classes--Public opinion, Dalits--Suffrage, Educational equalization--Moral and ethical aspects
    Item Type:
    Editorial
    Tag(s):
    Nālandā University, Jawaharlal Nehru University, Otherr bacward class, Adivasi, Bahujan, rhetorical analysis
    Permanent URL:
    https://doi.org/10.17613/shvq-ta95
    Abstract:
    इस लेख में यूनिवर्सिटियों में सामाजिक न्याय की अवहेलना के कारण होने वाले नुकासान की चर्चा की गई है। लेख में कहा गया है कि प्राध्यापकों का मुख्य काम शिक्षण, यानी ज्ञान की व्याख्या करना है। ज्ञान का निर्माण एक सतत प्रक्रिया है, जो समाज में घटित होती है, यूनिवर्सिटियां भी इस प्रकिया का उतना ही अंग हैं, जितना किसी किसान का खलिहान, पशुपालक की गौशाला या लोहार की भट्ठी। ज्ञान का निर्माण मशीनी रूप से नहीं किया जा सकता। ज्ञान के निर्माण के नाम पर यूनिवर्सिटियां पुस्तकों और दस्तावेजों को पगुराने वाला नाद बन गईं। एक कागज की दूसरे कागज पर नकल उतारने के लिए हजारों-लाखों रुपए के प्रोजक्ट, फेलोशिप आदि बांटे जाते रहे। हर प्राध्यापक स्वयंभू लेखक-चिंतक बन गया। वे स्वयं ही सेमिनार करते, स्वयं भाषण देते, स्वयं ही प्रमाण-पत्र लेते-देते, स्वयं ही किताबें लिखते और स्वयं ही उन्हें कोर्स में लगवाते। स्वायत्तता के नाम पर इन्होंने यूनिवर्सिटियों को ही नहीं, विश्वविद्यालय अनुदान आयोग जैसी संस्थाओं को भी अपने चंगुल में रखा। ओबीसी आबादी के हिसाब से भी इस देश का सबसे बड़ा वर्ग है। तमाम सर्वेक्षण और आंकड़े बताते हैं कि उच्च शिक्षा के क्षेत्र में इस वर्ग का प्रतिनिधित्व सबसे कम है। उच्च शिक्षा के क्षेत्र से इस वर्ग की गैर-मौजूदगी का अर्थ है कि यह क्षेत्र देशज ज्ञान और अनुभव के सबसे बड़े स्रोत से वंचित है। यह सिर्फ नौकरी या सुविधाओं का सवाल नहीं है। देश की 60 फीसदी आबादी के ज्ञान से नि:स्पृह यूनिवर्सिटियां दूर से भले ही हरे-भरे द्वीप की तरह दिखें; लेकिन अगर इनके मानविकी विभागों से दलित और आदिवासी विमर्श को बाहर कर दिया जाए, वे वस्तुत: ज्ञान के मरुस्थल हैं। आज अन्य पिछड़ा वर्ग के लिए न तो केंद्रीय यूनिवर्सिटियों (जेएनयू समेत) के हॉस्टलों में आरक्षण है; न ही पोस्ट डॉक्टोरल फेलोशिप और प्रोजेक्टों में उन्हें आरक्षण दिया जाता है; न ही उन्हें आवेदन आदि की फीस में कोई छूट दी जाती है। समाज-विज्ञान में शोध को बढ़ावा और धनराशि उपलब्ध कराने वाले इंडियन काउंसिल फॉर सोशल साइंस रिसर्च (ICSSR), नीतियों पर शोध करने वाले संस्थान इम्पैक्टफुल पॉलिसी रिसर्च इन सोशल साइंसेस (IMPRESS), इंडियन इंस्टीच्यूट ऑफ एडवांस स्टडीज समेत अनेकानेक अध्ययन संस्थानों में शोध के लिए अन्य पिछडा वर्ग को आरक्षण नहीं दिया जाता।
    Notes:
    यूनिवर्सिटियों में अनेक योग्य लोग भी हैं, जिन्होंने सार्वजनिक महत्व के बौद्धिक काम किए हैं; लेकिन विडंबना यह है कि उनमें से अधिकांश ने बौद्धिक लोकतंत्र के विकास की बजाय उन राजनीतिक संगठनों को महत्व दिया, जिनके वे सदस्य थे। नियुक्तियों, फेलोशिप आदि की रसमलाई भाई-भतीजावाद, जातिवाद, चेलावाद, संगठनवाद के आधार पर बांटी जाती रहीं। नतीजा यह हुआ कि अकादमिक जगत कुछ उच्च कही जाने वाली जातियों- मुख्य रूप से ब्राह्मणों व अन्य द्विजों का अभ्यारण्य बन गईं।
    Metadata:
    Published as:
    Online publication    
    Status:
    Published
    Last Updated:
    11 months ago
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    Attribution
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